आज की कविता बहोत ही सुंदर और दिल के गहराइयो से लिखी गयी है। आप सभी ने कभी ना कभी एक कलम का उपयोग किया होगा लिखने के लिए। आज हर इंसान कलम का उपयोग करता है ओर चाहे तो कोई भी हो।

कलम पर कविता
कलम का काम है लिखना,
वो तो बस वही लिखेगी,
जो आपका दिमाग
लिखवाना चाहेगा ,
सत्य-असत्य,अच्छा- बुरा
अपना या फिर पराया I
निर्जीव होते हुए भी ,
सजीवता का आभास
कराती है सबको,
भावनायें,विवेक,विचार
सब तो आपके आधीन है
ये कहाँ कुछ समझ पाती है I
बहुत सोच समझ कर
उठाना ये कलम,
ये स्वयं का परिचय नहीं देती
ये देती है परिचय आपके,
बुद्धि, विवेक और संस्कार का I
स्वरचित ( मंजू कुशवाहा)
रुकी कलम पर कविता
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो
भाव शून्य बन बिकी पड़ी हो
कल तक तुमने क्रान्ति लिखा था
आज कहो क्यों झुकी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो।
सत्ता का क्या भय तुमको है
या लेखन का मय तुमको है
अब भी गर तू नही लिखी तो
नफरत मिलना तय तुमको है
अंतर्मन के उठापटक से
तन्हा ही क्यों लड़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो।
जग का जब क्रन्दन लिखती थी
दलितों का बन्धन लिखती थी
बड़े बड़े सत्ताधीशों की
सजी हुई गद्दी हिलती थी
मगर मेज के कलमदान की
आज बनी फुलझड़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो।
युग परिवर्तक तेरी छवि है
सृजन में तू मेरी कवि है
अन्धकार में जो जीते है
उनकी तो बस तू ही रवि है
भेदभाव के इस दलदल में
आज अहो! क्यों गड़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुखी पड़ी हो।
अधिकारों से जो वंचित हैं
अपमानों से जो रंजित हैं
उनकी सारी क्षुधा उदर की
अंतर्मन तेरे संचित है
फिर भी तुम अनजान बनी सी
पॉकेट में ही जड़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो।
अपनी रौ में जब चलती हो
बहुतों के मन को खलती हो
तमस धरा का घोर मिटाने
मानो दीपक सी जलती हो
मगर सृजन की शोभा बनकर
इक कोने में अड़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो
कितने लेखक अमर किये हो
कितने कवि को नजर दिए हो
देश काल इतिहास समाए
कितने कड़वे जहर पिये हो
मगर आज नैराश्य हुई सी
द्रुम से मानो झड़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो
दिनकर के हुंकारों को तुम
तुलसी के संस्कारों को तुम
जयशंकर , अज्ञेय , निराला
सुभद्रा के व्यवहारों को तुम
आत्मसात कर अंतर्मन से
सृजन शिखर पर चढ़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो
फिर से तुम प्रतिकार लिखो तो
फिर से तुम हुंकार करो तो
रिक्त पड़े इस "हर्ष" पटल पर
फिर से तुम ललकार लिखो तो
किसके भय से भीरु बनी यूँ
नतमस्तक तुम खड़ी पड़ी हो
कलम कहो क्यों रुकी पड़ी हो
- हर्ष हरि बख्श सिंह आजमगढ़
मेरी ये क़लम.......
मेरी ये क़लम,किस ओर जा रही है ,
प्रणय गीत लिखते- लिखते ,
विरोध जता रही है ।
मैं स्वतंत्र ,तुम स्वतंत्र ,हम स्वतंत्र,
ये स्वतंत्रता भी बवाल मचा रही है ।
राष्ट्र हित से बढ़कर कोई बात नहीं ,
मगर ये जाति, धर्म, भाषा में उलझ कर ,
दो धारी तलवार होती जा रही है।
मेरी ये क़लम किस ओर जा रही है ,
प्रणय गीत लिखते- लिखते विरोध जता रही है ।
कुछ लकीरें माथे पे, कुछ लकीरें हाथों पे ,
कुछ लकीरें धरा पे,बंटते , बंटते क़लम भी बंटती जा रही है ।
मेरी ये क़लम किस ओर जा रही है ,
प्रणय गीत लिखते- लिखते विरोध जता रही है ।
रंगों में भी भेद है , ये मुझको खेद है ,
एक भाव,प्रेम राग, एकता में बांधने जो चली थी ,वो स्वयं ही
टूटती जा रही है ।
मेरी ये क़लम किस ओर जा रही है ,
प्रणय गीत लिखते- लिखते विरोध जता रही है ।
जिसने तलवारों को भी धार दी ,
जिसने क्रान्ति को भी आग दी ,
फूंकी है मुर्दों में भी जान जिसने ,
वही अब आलोचना से घबरा रही है ।
मेरी ये क़लम किस ओर जा रही है ,
प्रणय गीत लिखते- लिखते विरोध जता रही है।
शुभ्रा पालीवाल ।